पिछले कुछ वर्षों के भीतर, खासकर 2025 में, भारत ने कई अहम सैन्य और रणनीतिक संघर्षों का सामना किया। इन संघर्षों से एक बात बेहद स्पष्ट रूप से सामने आई कि युद्ध केवल सीमाओं पर बंदूक और मिसाइलों से नहीं लड़े जाते, बल्कि उतना ही अहम युद्ध होता है “सूचना युद्ध” (Information Warfare) का, जहाँ देश की छवि, नैरेटिव और मनोबल दांव पर लगे होते हैं। युद्ध के मैदान में भले ही भारत ने पाकिस्तान को भारी नुकसान पहुँचाया हो, खासकर मई में हुए “ऑपरेशन सिंदूर” में, लेकिन सूचना युद्ध के मैदान में भारत कहीं न कहीं पिछड़ता नजर आया।
पाकिस्तान ने न सिर्फ अपने नागरिकों का मनोबल बनाए रखा, बल्कि उसने पूरी दुनिया के सामने खुद को पीड़ित के रूप में पेश कर दिया, जबकि हकीकत बिल्कुल उलटी थी। उनके मंत्री खुद स्वीकार कर चुके हैं कि वे अतीत में आतंकवाद को समर्थन देते रहे हैं, उन्होंने अमेरिका समेत पूरी दुनिया के वांछित आतंकियों को पनाह दी, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने वैश्विक स्तर पर ऐसा नैरेटिव खड़ा कर दिया कि आज पश्चिमी देश भी उनसे सख्त सवाल पूछने से बचते हैं। यह सब कुछ एक संगठित सूचना रणनीति और मीडिया मैनेजमेंट का परिणाम है। भारत में हम सोशल मीडिया पर भले ही पाकिस्तान के इन प्रयासों को “फेक न्यूज़”, “प्रोपेगैंडा” कहकर ट्रोल कर दें, लेकिन ये प्रतिक्रिया अधिकतर देश के अंदर तक ही सीमित रहती है। वैश्विक स्तर पर पाकिस्तान को नैतिक या कूटनीतिक नुकसान शायद ही हुआ है। वहीं, भारत के द्वारा किए गए ऑपरेशन और सैन्य उपलब्धियाँ बाहर की दुनिया तक पहुंच ही नहीं पाईं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि भारत की ओर से न केवल सूचना युद्ध में कोई ठोस जवाब नहीं आया, बल्कि कई बार भारत के ही शीर्ष अधिकारियों के बयान पाकिस्तान के नैरेटिव को मज़बूती देते दिखे। भारतीय सेना के सबसे बड़े पद, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, ने एक विदेशी, भारत विरोधी समाचार एजेंसी को इंटरव्यू देकर यह स्वीकार किया कि हमारे लड़ाकू विमान (jets) डाउन हुए थे। यही बात बाद में थाईलैंड में भारतीय वायुसेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दोहराई। ये बयान जरूरी नहीं थे और इनसे वैश्विक स्तर पर भारत की छवि को नुकसान पहुँचा। ऐसे समय में जब देश को अपने नागरिकों के मनोबल को ऊँचा रखने की ज़रूरत थी, ये बयान केवल विपक्षी देश के नैरेटिव को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बल दे रहे थे। यह एक रणनीतिक विफलता कही जा सकती है।
अब सवाल उठता है कि जब ऑपरेशन सिंदूर में भारत को सैन्य रूप से स्पष्ट बढ़त थी, तब सरकार ने अचानक सीजफायर (संघर्षविराम) क्यों स्वीकार कर लिया? क्या यह कोई अंतरराष्ट्रीय दबाव था? क्या भारत किसी बड़े जवाबी हमले की आशंका से पीछे हटा? क्या कोई राजनयिक समझौता हुआ जिसके कारण सरकार ने आगे नहीं बढ़ने का फैसला किया? जब सरकार अन्य गोपनीय जानकारियों को धीरे-धीरे सार्वजनिक कर रही है, तब यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए।
देशवासी यह जानने के हकदार हैं कि उन्होंने जो भरोसा अपनी सरकार और सैन्य नेतृत्व पर जताया, वह क्यों अधूरा रह गया। सूचना युद्ध केवल बाहर के दुश्मनों से नहीं लड़ा जाता, यह अपने नागरिकों की मानसिकता, आत्मबल और विश्वास के साथ भी जुड़ा होता है। जब तक भारत इस क्षेत्र में ठोस रणनीति नहीं अपनाएगा और अपनी उपलब्धियों को सही ढंग से वैश्विक मंच पर प्रस्तुत नहीं करेगा, तब तक हम बार-बार नैतिक जीत के बावजूद मनोवैज्ञानिक रूप से हारते रहेंगे। अब समय आ गया है कि सरकार इस मौन को तोड़े और देशवासियों को विश्वास और जानकारी, दोनों प्रदान करे। हमें यह तय करना होगा कि हम केवल मैदान पर जीतकर ही संतुष्ट हैं या दुनिया को भी यह दिखाना चाहते हैं कि भारत हर मोर्चे पर विजेता है, चाहे वह रणभूमि हो या सूचनाओं की लड़ाई।