न्यायपालिका द्वारा लगाई गई कृत्रिम और अवैज्ञानिक 50% आरक्षण सीमा – जो न तो जनभावनाओं की प्रतिनिधि है, और न ही समाज की संरचना या जनसांख्यिकीय आंकड़ों का प्रतिनिधित्व करती है – उसे चुनौती देना आवश्यक है।
इस बात को कोई इनकार नहीं कर सकता कि जातीय जनगणना के आंकड़े भारत के विकास के असंतुलित नक्शे को सुधारने के लिए जरूरी हैं, जहां कुछ समूहों ने अपेक्षाकृत बड़ी हिस्सेदारी प्राप्त कर ली है।
तेजस्वी यादव
जैसा कि पाठकों को मालूम होगा, मैंने हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जातीय जनगणना को लेकर बातचीत के संदर्भ में संपर्क किया था। मेरी मांग – राज्य में बढ़े हुए आरक्षण को संविधान की नौंवी अनुसूची में शामिल करने पर मुख्यमंत्री की चुप्पी ने एक बार फिर बहुचर्चित “दोहरे इंजन” वाली एनडीए सरकार की सामाजिक न्याय पर दोहरावपूर्ण नीति को उजागर कर दिया है। उनकी चुप्पी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि गरीबों, वंचितों और हाशिए पर रह गए समुदायों के प्रति उनका नजरिया वैचारिक रूप से शत्रुतापूर्ण है।

एनडीए की जातीय जनगणना कराने की अनिच्छा, हम जैसे विपक्षी दलों द्वारा इस तरह की तमाम मुद्दों की बार-बार मांग की गई है, उसके पीछे राजनीतिक, वैचारिक और चुनावी गणनाएं मौजूद हैं। भाजपा लंबे समय से धार्मिक पहचान को एकरूप बनाकर ध्रुवीकरण की राजनीति करती आ रही है। उनका मकसद जातीय विभाजन को धार्मिक ढांचे के भीतर समाहित करना और राजनीति व शासन में वर्ण व्यवस्था को कायम रखना रहा है। उन्हें यह भी डर है कि एक व्यापक जातीय जनगणना से जाति आधारित असमानताओं पर ठोस आंकड़े सामने आ जाएंगे, जिससे सार्वजनिक नीति में जाति की प्रासंगिकता फिर से स्थापित होगी—जो भाजपा के ‘काल्पनिक विकास’ के नज़रिए के खिलाफ जाएगा।
भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व और हिंदी पट्टी में उनका बड़ा वोटबैंक मुख्यतः उच्च जातियों से आता है। एक जातीय जनगणना यह उजागर कर देगी कि ओबीसी, एससी और एसटी समुदाय सत्ता और प्रतिनिधित्व में किस तरह से वंचित हुए हैं। भाजपा को अब डर है कि जातीय जनगणना के बाद आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग और भी तेज होगी। यही डर उनकी सामाजिक न्याय संबंधी हमारी वैध मांगों के प्रतिरोध का कारण है।
जातीय आंकड़े ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को चुनाव और नीति के स्तर पर सशक्त उपकरण उपलब्ध कराएंगे, जिससे वे आरक्षण के पुनर्गठन और लक्षित कल्याण योजनाओं की मांग कर सकें। वैज्ञानिक जातीय जनगणना के आधार पर बढ़े हुए आरक्षण को लागू करना सिर्फ एक राजनीतिक निर्णय ही नहीं, बल्कि संविधान में निहित समानता और न्याय के आदर्शों की पूर्ति के लिए एक सामाजिक-आर्थिक आवश्यकता भी है। हम जैसे विपक्षी दल जातीय जनगणना की मांग इसलिए करते हैं क्योंकि यह संविधान में किए गए वादों को मजबूत करती है। जातीय जनगणना यह आधार देती है कि आरक्षण वास्तविक सामाजिक और आर्थिक हालात के अनुसार पुनर्गठित किया जाए।
इसी वजह से मैं बिहार में आरक्षण को 85% तक बढ़ाने के लिए ठोस कार्रवाई और नए कानून की मांग कर रहा हूं। हमें इसके लिए केंद्र सरकार का समर्थन और नौंवी अनुसूची में इसका समावेश चाहिए, क्योंकि हम समझते हैं कि संवैधानिक सुरक्षा के बिना ये प्रगतिशील कदम अदालतों में चुनौती दिए जा सकते हैं और कमजोर किए जा सकते हैं। 50% की जो कृत्रिम सीमा न्यायपालिका ने लगाई है, वह किसी जनसहमति, सामाजिक संरचना या जनगणना आंकड़ों पर आधारित नहीं है – और इसलिए इसे चुनौती देना बहुत जरूरी है।
यह बात कोई इनकार नहीं कर सकता कि जातीय जनगणना के बिना भारत के विकास में गहराई से जड़ जमा चुकी असमानता को दूर नहीं किया जा सकता। जब आरक्षण की नीतियां वर्तमान सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ मेल खाएं, तभी शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी में व्याप्त बहिष्करण को संबोधित करना मुमकिन है। जातीय जनगणना यह स्पष्ट कर देगी कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के भीतर किन उप-समूहों को अभी तक कितना प्रतिनिधित्व और संसाधन मिले हैं। इससे प्राप्त जानकारी के आधार पर तय किया गया बढ़ा हुआ आरक्षण ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों के लिए शिक्षा, रोजगार और शासन में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण उपाय साबित हो सकता है, साथ ही निजी क्षेत्र में भी इसकी विविधता भी सुनिश्चित कर सकेगा।
सटीक आंकड़ों के बिना आरक्षण केवल असमानता को बनाए रखने का खतरा बन सकता है; जातीय जनगणना के साथ, यह न्याय और सशक्तिकरण का सटीक उपकरण बन सकता है।
जो बात मुझे सबसे ज्यादा दुविधा में डालती है वह यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार इस विषय पर वर्षों से कोई स्पष्ट रुख नहीं अपना रही है। मैंने बिहार की राजनीति में इस दोहरेपन को स्वयं ही देखा है। भाजपा चुनावों में पिछड़े वर्गों के समर्थन की बात करती है, लेकिन जब बात 85% आरक्षण की मांग या नौंवी अनुसूची में शामिल करने की हो, तो वह चुप्पी साध लेती है। न्यायपालिका के गलियारों में इसके खिलाफ प्रॉक्सी संगठनों के माध्यम से कई प्रयास भी किए गए हैं। यह दोहरा रवैया भाजपा की रणनीति को दर्शाता है – जहां वह क्षेत्रीय दबावों के बीच संतुलन बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर अपने वैचारिक एजेंडे से चिपकी रहती है, जो उसे आरएसएस से विरासत में मिला है।
अगर भाजपा और एनडीए के सहयोगी दल – खासकर बिहार के नेता – बीते 20 वर्षों की सत्ता में रहने के बाद भी इतना बड़ा काम नहीं कर सकते, तो हाल ही में घोषित ‘आधा-अधूरा’ राष्ट्रीय जातीय सर्वेक्षण भी केवल दिखावा ही रहेगा। भाजपा की इस विषय पर अनिच्छा किसी प्रशासनिक या तकनीकी चुनौती से नहीं, बल्कि राजनीतिक भय से प्रेरित है। जातीय जनगणना उनके गठबंधन की सामाजिक संरचना को हिला सकती है, अधूरी पड़ी सामाजिक न्याय की मांगों को पुनर्जीवित कर सकती है और भारतीय समाज के उनके वैचारिक ढांचे को चुनौती दे सकती है।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि एक पूर्ण और पारदर्शी जातीय जनगणना भाजपा के लिए कई असहज सत्य उजागर कर सकती है, जिन्हें वह न तो नकार सकती है और न ही छिपा सकती है। इसके आंकड़े स्पष्ट कर देंगे कि विभिन्न जातियों और उप-जातियों की क्या संख्या है और उन्हें किस क्षेत्र में कितना प्रतिनिधित्व मिला है – इससे भाजपा के लिए केवल भाषणों में सबको सशक्त करने का दावा करना ही कठिन हो जाएगा।
बिहार में मेरी 85% आरक्षण और विशेष विधायी सत्र की मांग इस बड़े संघर्ष का हिस्सा है – पारदर्शिता और न्याय के लिए। जब मैं मुख्यमंत्री से विशेष विधानसभा सत्र बुलाने की मांग करता हूं, तो मैं सिर्फ वादों की बात नहीं करता, बल्कि ऐसे ठोस विधायी कदम की मांग करता हूं जो न्यायिक समीक्षा में टिक सकें और संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त करें।
अब यही वक़्त है कि सभी राजनीतिक दल यह तय करें कि वे संविधान में किए गए समानता के वादे के साथ रहना चाहते हैं या फिर जो ऐतिहासिक विशेषाधिकारों को बनाए रखना चाहते हैं, उन ताकतों के पक्ष में। एक समग्र जातीय जनगणना किसी भी प्रतिनिधित्वकारी लोकतंत्र की ओर पहला कदम है – जहां नीतियां तथ्यों पर आधारित हों, संसाधनों का वितरण न्यायसंगत हो और हर नागरिक को राष्ट्र की प्रगति में उसका न्यायोचित स्थान मिले।
जब तक हमें यह जातीय जनगणना प्राप्त नहीं होती, तब तक हमारी सामाजिक न्याय की लड़ाई विधानसभा, संसद और हर लोकतांत्रिक मंच पर जारी रहेगी। सत्य को हमेशा के लिए दबाया नहीं जा सकता, और भारत की जनता ऐसे नेताओं की हकदार है जो आंकड़ों, संकल्प और संविधानिक मूल्यों के प्रति अडिग प्रतिबद्धता के साथ उनके अधिकारों के लिए लड़ना चाहते हैं।
(लेखक बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं)